हमीरपुर (उत्तर प्रदेश)। संसार में जन जन
में लोकप्रिय अयोध्या पति राम के चरित्र और उनकी लीलाओं को कौन नहीं
जानता। चाहे इंडोनेशिया में सुप्रसिद्ध बाली रामलीला हो या नेपाल और
मिथलांचल सुप्रसिद्ध रामखेलिया, दक्षिण भारत में कंबन रामायण पर आधारित
राम के चरित्र का नाद गायन, वादन हो। उसमें अपने देश प्रदेश की भाषा
संस्कृति को जननायक राम को आराध्य मानकर उकेरा गया है।
रचनायें प्रस्तुत की गयी हैं। इसी तरह बुंदेलखंड में भक्ति काल के
आंदोलन के महान संत तुलसी की रचना रामचरित मानस को और उनके आदर्श चरित्र
की अमिट छाप बुंदेलखंड में जन-जन में प्रतिष्ठित है। इस परंपरा को
बुंदेलखंड में गांव-गांव में रामलीला के माध्यम से इनके उपदेशों व कथनकों
की नाटय प्रस्तुति की जाती है। जो दशहरे से शुरू होकर चैत की राम नवमी तक
चलती है। वैसे फसल कटने के बाद भी गांवों में रामलीला का चलन है। नाटय
गायन लोक रंजन विविधताओं से भरे बुंदेलखंड में रबी की बुवाई के बाद से
रामलीला का मंचन शुरू हो जाता है। जो फसल की कटाई तक बराबर चलता रहता है।
बुंदेलखंड में रामलीला के प्रति समर्पित स्वर्गीय रामलाल को कभी नहीं
भुलाया जा सकता। जोकि बांदा जनपद के जारी जौरही गांव में जन्मे और
अनुसूचित जाति के थे। उन्होंने जीवन में नारी भेष बनाकर अपना नाम सिया अली
रख लिया था। वे भगवान राम के शौर्य, बचपन, माधुर्य, विवाह, विरह गीतों को
दादरा ठुमरी, चैती, भजन, लमटेरा, बृजवासी विधाओं में गाकर भगवान राम का
संदेश जन-जन तक पहुंचाते थे। जब वे नृत्य गायन के साथ मंच पर अभिनय करते,
तो गांव के लोग पूरे दिन मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे। उन दिनों गांव में
रोशनी की व्यवस्था नहीं होती थी। इसलिए रामलीला दिन में होती थी।
जैसे कि आजकल रामलीला का रात में प्रचलन है। अधिकतर ग्रामीण रामलीला
कलाकार बांदा कचहरी में संकट मोचन मंदिर में इकट्ठे होते थे। वादक कलाकार
सुभाग दत्त, भगवानदीन जसपुरा, वहीं बैठकर ऐसी बुंदेली विधाओं को सुनाते थे
कि बड़ी संख्या में लोग वहां इकट्ठे होते और तब गांव में खबर लग जाती कि
रामलाल संकट मोचन मंदिर में हैं। ऐसे अनपढ़, मजदूर बुंदेली गायक को सुनने
की लोग प्रतीक्षा करते थे। इनके देहावसान के बाद बिगहना बिलगांव के
मुस्लिम परिवार में जन्मे जहूर और उनके भाईयों ने रामलीला परंपरा के गायन,
नृत्य को आगे बढ़ाया।
मुस्लिम होते हुए भी भगवान राम के चरित्र का अभिनय कर साम्प्रदायिक
सौहार्द की मिशाल कायम की। जिसका प्रभाव आज भी बुंदेलखंड में है। इन लोक
गायकों पर सरकारी या गैर सरकारी किसी भी संस्था ने काम नहीं किया। इसलिए
कला, कलाकार और उसकी विधा विलुप्त होती गयी। इस परंपरा का इकलौता कलाकार
महेंद्र सिंह चिचारा महोबा हैं। जो वृद्धावस्था में बिना किसी सहायता के
अपनी जीवन नैया राम के भरोसे खेकर पार कर रहे हैं। किसी लोक गायक से इनकी
रचना सुनकर मन आंदोलित हो जाता है। ऐसा नहीं कि गांवों में रामलीला का अब
मंचन नहीं होता, मगर भाव बदले हैं। मनोरंजन में अश्लीलता आ गयी है।
बुंदेली ग्रामीणों की रुचि रामलीला के प्रति खत्म होती जा रही है।
बुंदेली रामलीला खतरे में है। आयातित और व्यवसायी कलाकार सांस्कृतिक
प्रदूषण फैलाकर खत्म करने में लगे हैं।