लगातार सूखे के संकट का सामना करने वाले बुंदेलखंड में यह समस्या प्राकृतिक
होने के साथ ही मानवनिर्मित भी है। छतरपुर जिले के ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में
यूनिसेफ की मदद से संचालित वर्षा जल संग्रहण की योजना में इतनी लापरवाही की गई कि
योजना का मूल उद्देश्य ही खत्म हो गया। जिले के 72 स्कूलों में 2 करोड़ रुपए से
अधिक खर्च होने के बावजूद आज भी छात्रों को पीने का साफ पानी नहीं मिलता। जहां
टंकियां बनीं, वहां या तो पानी नहीं है या गंदा सड़ा पानी है जो पीने के लायक नहीं
है। कुल जमा सार यह कि छात्रों को सुविधा देने के नाम पर पैसे खर्च किए गए लेकिन वे
आज भी उससे वंचित हैं।
जिले के सुकुंवा गाँव के सेकंडरी स्कूल में जमीन पर बनी टंकी देख कर पहले तो लगा
कि शायद सरकार ने बच्चों के लिए पीने के पानी की अच्छी व्यवस्था कर दी है लेकिन
वहां जो कुछ मिला उसे देख कर होश उड़ गए। पानी की इस टंकी मे किसी ट्यूबवैल से पानी
नहीं भरा जाता बल्कि वर्षा जल एकत्रित किया जाता है ताकि स्कूल के बच्चे वर्ष भर
इस पानी से अपनी प्यास बुझा सकें। वर्षा जल संरक्षित करने के लिए स्कूल की छत पर के
दो कोनों से पाइप लगाए गए हैं। छत की पट्टी टूटने का कारण पूछने पर बताया गया कि
पट्टी नहीं तोड़ते तो स्कूल ढह जाता। छत पर पानी भरने से दीवारों में सड़न आने लगी
थी।
लगभग हर जगह यही हालात मिले। सिमरिया, सहस्नगर, बछर्वानी, मोराहा, प्रतापपुरा,
धमना, चित्रही, अतर्रा और सिमरधा आद सभी गांवों की एक सी कहानी है। मोराहा स्कूल
में तो अजब नजारा देखने को मिला। स्कूल की छत पर फसल सूख रही थी। टंकी में जाने
वाली पाइप लाइन के मुहाने पर कचरे का ढेर था। एक छात्र राजेश ने बताया कि टंकी से
कभी पानी नहीं मिला ना कभी इसका उपयोग किया। एक बार गाँव में कालेज के छात्रों का
कैंप लगा था, तब पास के कुंए से इस टंकी को भरा गया था।
सलैया में स्कूल के पास सार्वजानिक कुआँ है, जिसका उपयोग गाँव के लोग और स्कूल
के बच्चे करते हैं। यहां भी जल संरक्षण के लिए टंकी बन गई पर पाइप लाइन नहीं जुड़ी।
प्राचार्य सुनील कुमार इस टंकी की उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। कीरतपुरा
स्कूल भवन के बगल में टंकी तो बन गई पर इस भवन में स्कूल ही नहीं लगता। भवन में छत
ही नहीं है। जिस स्कूल के लिए ये टंकी बनाई गई, वह यहां से एक किलोमीटर दूर लगता
है। कहा गया कि जब स्कूल के अतरिक्त कक्ष बन जाएंगे तो उसकी छत से इस टंकी को जोड़
दिया जाएगा।
सामजिक सरोकार से जुडे इस मामले की तह तक जाने के लिए बुंदेलखंड मीडिया रिसोर्स
नेटवर्क ने खोजबीन की तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। छतरपुर जिले का सुकुंवा कोई
अकेला स्कूल नहीं था। जिले के 72 स्कूलों में इस तरह की टंकी निर्माण कर दो करोड़
37 लाख रुपए खर्च किए गए।
ग्रामीण स्कूलों में जल संरक्षण की रूफ वाटर हार्वेस्टिंग योजना इस जिले में
2007-08 से शुरू की गई। 40 स्कूलों में 2.47 लाख की लागत से बनाये गए इस स्ट्रक्चर
में कुल 98.80 लाख रु. व्यय हुए। 2008-2009 में 32 स्कूलों में 4.32 लाख के मान से
138.24 लाख रु.व्यय किए गए। 2009-2010 के लिए 4.31 लाख के मान से 28 स्कूलों में जल
संरक्षण की टंकी का निर्माण प्रस्तावित है इस पर 121.48 लाख रु. व्यय होंगे।
यूनिसेफ ने इस योजना के लिए धन मध्य प्रदेश सरकार को मुहैया कराया। उसका मकसद था
की जिले के ऐसे स्कूल जहां पानी के स्रोत नहीं है और बच्चों को पीने के पानी की
समस्या है, वहां वर्षा जल को संरक्षित किया जाए। उद्देश्य अच्छा था पर सरकारी तंत्र
ने इस योजना का एसा सत्यानाश किया है कि अब यूनिसेफ को भी दुबारा सोचना पड़ेगा।
वर्षा जल संरक्षण के नाम पर यह काम कराने वाले लोक स्वस्थ्य एवं यांत्रिकी विभाग
के कार्यपालन यंत्री श्रीवास्तव का कहना है कि उन्होंने तो शासन की योजना के तहत
निर्धारित काम डिजायन के अनुसार कराया है। वे वही करते है जो सरकार के दिशा निर्देश
होते है। यदि कुछ छिट-पुट परेशानी है तो उसे ठीक करेंगे।
जल संरक्षण के इस तमाशे की सत्यता जानने के लिए एक सर्वे स्वयंसेवी संस्था ने
कराया। 60 से ज्यादा स्कूलों के प्राचार्यों ने इस संरक्षित जल को पीने के लिए
उपयोगी नहीं माना। उनका कहना है की गंदी छत से आने वाला पानी कैसे पीने योग्य हो
सकता है।
जल संरक्षण के लिए कार्य करने वाली संस्था ग्लोबल विलेज फाउंड़ेशन के प्रमुख अजय
अवस्थी ने बताया कि उनकी संस्था ने अनेक स्कूलों का सर्वे किया है। जिसमे विभाग ने
एक रचना सब पर लागु के सिद्धांत के तहत काम किया। वर्षा जल संरक्षण के लिए भारत
सरकार के वाटर रिसोर्स मंत्रालय के मैनुअल का यहाँ पालन नहीं हुआ। छत पर साफ़ सफाई
नहीं, स्लोप नहीं, कई टंकियों में पाइप नहीं लगे, टंकी और पाइप खुले छोड़े गए।
टंकियों को जमीन के ऊपर बनाना चाहिए था पर नीचे बना दी गई। टंकियों की सफाई की कोई
व्यवस्था नहीं है।
जानकारों का कहना है कि यह टंकिया वहां ज्यादा उपयोगी थी, जहाँ भू-जल स्तर
बिल्कुल नीचे चला गया है। इससे कहीं बेहतर होता कि वाटर हार्वेस्टिंग पर कार्य
किया जाता। इतनी राशि में जिले के एक हजार विद्यालयों में रूफ वाटर हार्वेस्टिंग का
काम हो सकता था, जो कही ज्यादा उपयोगी होता।